Friday 5th of July 2024

UP Lok Sabha Election 2024: एटा संसदीय सीट पर किसका रहा दबदबा, जानिए इस Seat का चुनावी समीकरण और इतिहास

Reported by: PTC News उत्तर प्रदेश Desk  |  Edited by: Deepak Kumar  |  April 15th 2024 12:57 PM  |  Updated: April 15th 2024 12:57 PM

UP Lok Sabha Election 2024: एटा संसदीय सीट पर किसका रहा दबदबा, जानिए इस Seat का चुनावी समीकरण और इतिहास

ब्यूरोः यूपी के ज्ञान में आज चर्चा करेंगे एटा संसदीय सीट की। ये क्षेत्र तुलसी, खुसरो की सरजमीं है। यहां की कासगंज विधानसभा सीट के सोरों कस्बे को रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की जन्मस्थली कहा जाता है। तो प्रसिद्ध सूफी संत, गायक व संगीतकार अमीर खुसरो की जन्मस्थली भी एटा है। यहां का पटना पक्षी विहार, कैलाश मंदिर, काली मंदिर, हनुमानगढ़ी, राम दरबार दर्शनीय स्थल हैं। ये लोकसभा क्षेत्र शाक्य-लोधी व यादव बाहुल्य है। इसे पूर्व सीएम और दिग्गज बीजेपी नेता कल्याण सिंह का गढ़ भी कहा जाता था।

इतिहास के पन्नों में एटा जिला

प्राचीन काल में एटा को “एंठा” कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ है,  ‘आक्रामक रूप से जवाब देना’। कुछ विद्वानों का मत है कि इसका नाम इँटा भी हुआ करता था। 16वीं शताब्दी में सिकंदर लोदी से युद्ध में हार जाने के बाद चौहान राजवंश के प्रताप सिंह ने एटा के नजदीक पहोर क्षेत्र  अपना ठिकाना बना लिया था। इनके पुत्र संग्राम सिंह ने एटा नगर की स्थापना की थी। उनकी छठी पीढ़ी के हिम्मत सिंह ने 1803 में अंग्रेजों से समझौता कर लिया और हिम्मतनगर बझेरा में किला बनवाया था। जिसके अवशेष अभी भी मौजूद हैं। हिम्मत सिंह के पुत्र मेघ सिंह ने 1812 से 1849 तक यहां शासन किया। इनके बेटे डंबर सिंह ने 1857 में अंग्रेजों से मुकाबला किया और वीरगति को प्राप्त हुए।

आजादी के पहले संग्राम का अहम पड़ाव बन गया था एटा

एटा की कासगंज तहसील के कालाजार मैदान पर दिसंबर 1857 में अंग्रेजों और क्रांतिकारियों के बीच भीषण युद्ध हुआ था। दिल्ली से अलीगढ़ होती हुई कर्नल सीटन के नेतृत्व में जा रही अंग्रेजों की टुकड़ी को क्रांतिकारियों ने घेर लिया। युद्ध की जानकारी मिलने पर लेफ्टिनेंट हडसन व सेनापति वालपोल के सैनिकों से भी क्रांतिकारियों ने मुकाबला किया। इस क्षेत्र में भीषण रक्तपात हुआ बाद में अंग्रेजों ने यहां अत्याचार ढाए।

एटा संसदीय सीट के चुनावी इतिहास का सफर

साल 1952 में पहली बार इस सीट से कांग्रेस के टिकट पर रोहन लाल चतुर्वेदी सांसद चुने गए। 1957 और 1962 के चुनाव में यहां की जनता ने हिंदू महासभा के बिशन चंद्र सेठ को अपना सांसद चुना। 1967 और 1971 के चुनाव में फिर से  कांग्रेस के रोहन लाल चतुर्वेदी को जीत हासिल हो गई। 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर महा दीपक सिंह शाक्य ने यहां जीत हासिल की। 1980 में कांग्रेस के मुशीर अहमद खान सांसद बने। 1984 में लोकदल के प्रत्याशी मोहम्मद महफूज अली को इस सीट पर फतेह मिली। पर इसके बाद 1989, 1991, 1996 से 1998 तक लगातार चार बार बीजेपी के टिकट से महा दीपक शाक्य चुनाव जीते। उन्होंने छह बार सांसद चुने जाने का रिकॉर्ड कायम कर दिया। 1999 में बीजेपी के महा दीपक सिंह शाक्य की जीत का सिलसिला  टूट गया। तब यहां से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी कुंवर देवेंद्र सिंह यादव ने चुनाव जीत लिया। देवेन्द्र सिंह यादव को साल 2004 के आम चुनाव में भी कामयाबी मिली और सांसद चुने गए।

परिसीमन के बाद बदली इस संसदीय सीट की तस्वीर और बदल गए समीकरण

2008 में हुए परिसीमन के बाद सहावर में नई तहसील का सृजन कर कासगंज को नए जिले का दर्जा मिला। नए परिसीमन के बाद 2009 में हुए चुनाव में पहली बार कासगंज विधानसभा एटा संसदीय क्षेत्र में शामिल हुआ। अलीगंज विधानसभा क्षेत्र इससे बाहर हो गया। इसके साथ ही संसदीय क्षेत्र के जातीय समीकरणों में बदलाव आ गया। इसी वजह से  पूर्व सीएम कल्याण सिंह ने बुलंदशहर संसदीय सीट के बजाए इस क्षेत्र को चुनाव के लिए चुना और कामयाब भी हुए। उनके बेटे को भी दो बार यहां से जीतने का मौका मिला। 

यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह ने बड़ी जीत दर्ज की

साल 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण सिंह बीजेपी से अलग होकर अपनी जनक्रांति पार्टी से चुनाव मैदान  उतरे। तब उन्हें समाजवादी पार्टी ने समर्थन दे दिया था। उस  चुनाव में 275717 वोट पाकर कल्याण सिंह ने जीत हासिल की थी। बीएसपी के प्रत्याशी देवेंद्र सिंह यादव को 147449 वोटरों का समर्थन मिला।

कल्याण सिंह की सियासी विरासत संभाली उनके बेटे ने

साल 2014 के चुनाव तक कल्याण सिंह की बीजेपी में वापसी हो चुकी थी। इस सीट से उनके बेटे राजवीर सिंह उर्फ राजू भैया को बीजेपी ने अपना प्रत्याशी बनाया। उन्होंने 474978 वोट हासिल कर जीत दर्ज की। तब सपा के उम्मीदवार कुंवर देवेंद्र सिंह यादव को 273977 वोट मिले। इस तरह से इस सीट पर जीत का मार्जिन 201001 वोटों का रहा था। केन्द्र में मोदी सरकार कायम होने के बाद कल्याण सिंह को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया।

पिछले आम चुनाव में भी जीत के नायक बने राजवीर सिंह

साल 2019 के संसदीय चुनाव में एटा सीट से बीजेपी के  राजवीर सिंह ने जीत दर्ज की। उन्हें 545,348 वोट मिले जबकि सपा के देवेंद्र सिंह यादव के खाते में 4,22,678 वोट दर्ज हुए। इस सीट को बीजेपी के राजवीर सिंह ने 1,22,670वोटों के मार्जिन ने फतह कर लिया।

वोटरों की तादाद जातीय समीकरण के लिहाज से

साल 2019 के चुनाव में यहां 1621295 वोटर थे। सर्वाधिक तीन लाख की तादाद है लोधी राजपूतों की। इन सजातीय वोटरों की वजह से ही ये क्षेत्र कल्याण सिंह और उनके परिवार का गढ़ माना जाता है। यहां ढाई लाख के करीब यादव और दो लाख शाक्य वोटर हैं। दो लाख जाटव हैं। तो ब्राह्मण और वैश्य वोटर एक-एक लाख के करीब हैं। इसके अलावा अन्य ओबीसी और मुस्लिम वोटर भी प्रभावी तादाद में हैं।

साल 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को चार सीटें मिलीं

एटा संसदीय सीट के तहत पांच विधानसभाएं शामिल हैं। जिनमे से कासगंज, अमांपुर और पटियाली विधानसभा कासगंज जिले का हिस्सा हैं जबकि एटा जिले की एटा सदर और मारहरा विधानसभाएं हैं। साल 2022 के विधानसभा चुनाव में चार सीटें बीजेपी के पास गईं जबकि एक सीट पर सपा को जीत हासिल हुई। कासगंज से बीजेपी के देवेंद्र सिंह, अमानपुर से बीजेपी के हरिओम वर्मा, एटा सदर से बीजेपी के विपिन वर्मा डेविड, मारहरा से बीजेपी के ही वीरेन्द्र लोधी चुनाव जीते थे। जबकि पटियाली सीट से सपा की नादिरा सुल्तान चुनाव जीतकर विधायक बनीं।

2024 की चुनावी चौसर सज चुकी है

आम चुनाव के लिए बीजेपी ने फिर से राजवीर सिंह उर्फ राजू भैया को ही अपना प्रत्याशी बनाया है। सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर से सपा के देवेश शाक्य चुनावी मुकाबले में हैं। तो बीएसपी खेमे ने  खासे मंथन के बाद मोहम्मद इरफान एडवोकेट को टिकट दिया है। पूर्व सीएम और राजस्थान के गवर्नर स्व. कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह जीत की हैट्रिक लगाने को लेकर प्रयासरत हैं। इंडी गठबंधन के देवेश शाक्य 2005 और 2010 में औरैया से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव जीते थे, जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए भी दांव आजमाया था पर एक वोट से चुनाव हार गए थे। बीएसपी ने मोहम्मद इरफान पहले प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे। कांग्रेस का टिकट पाने को जुटे थे पर सपा-कांग्रेस गठबंधन के बाद यहां से मौका मिलने की संभावना न पाकर बीएसपी में शामिल हो गए थे। अब सभी दलों के  प्रत्याशी अपने अपने समीकरणों के लिहाज से चुनावी जीत पाने को मशक्कत कर रहे हैं। मुकाबला त्रिकोणीय बन गया है। 

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