ब्यूरो: पिछले वर्ष मानसून द्वारा हिमाचल को दिए जख्म अभी भर भी नहीं पाए थे कि पहाड़ी प्रदेश में फिर से आपदाओं ने कहर बरपाना शुरू कर दिया है। तबाही का खौफनाक मंजर देखकर लोग सहमें हुए हैं। कई जिंदगियां तबाह हो गई हैं, कई लोग बेघर हो गए और मलबे में अभी भी जिंदगीयां तलाशी जा रही हैं। चीख पुकार के बीच गमगीन आंखें अपने की राह ताक रहीं हैं।
ये ज़ख्म किसने दिए क्यों मिले लोग समझ नहीं पा रहे हैं। 31 जुलाई की रात में सोए लोगों को क्या खबर थी कि वह पहली अगस्त की सुबह कभी देख नहीं पाएंगे। कुछ मलबे में मृत मिले, कुछ दबे हैं, कुछ घायल, सबसे बड़ा दर्द तो रेस्क्यू की तलाश की आस का है। बहाव कौन जाने कहां बहा ले गया। यदि बहाव लोगों को सतलुज तक बहा ले गया है तो फिर सतलुज की गहराई का तो कोई अंत ही नही हैं। सतलुज ने तो कई ट्रक निगल लिए जिनका आजतक पता ही नही चला।
सबसे बड़ा सवाल तो ये भी है कि क्या इन आपदाओं के लिए सिर्फ प्रकृति जिम्मेदार है? इसका जवाब है नहीं, अधिकतर तो मानव निर्मित आपदाएं हैं। बिजली बनाने के लालच में हिमाचल में जो विद्युत परियोजनाओं की रेट रेस लगी, उसने पहाड़ों को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बेतरतीब पहाड़ों की कटिंग, बड़ी बड़ी मशीनों से पहाड़ो का सीना छलनी करना, पेड़ों की बलि, मलबे को कहीं भी फेंकना ये सारे सवाल है जो आज उठ खड़े हुए हैं।
क्योंकि जिस तरह बादल फटने की घटनाओं में इजाफा हो रहा है और जान माल का भारी नुकसान हो रहा है। उससे अब सबक लेने का वक्त आ गया है। विकास के नाम पर छलनी किए जा रहे पहाड़ों के सीने का दर्द कौन समझ रहा है। पहाड़ों में धड़ाधड़ बन रही विद्युत परियोजनाएं इसके लिए जिम्मेदार नजर आ रही हैं। क्योंकि रामपुर और कल्लू के मलाणा में इतना बड़ा सैलाब क्या इशारा कर रहा है।
क्या हिमाचल प्रदेश के देवी देवता और प्रकृति नहीं चाहते कि इस तरह पहाड़ छलनी किए जाएं, वह नहीं चाहते हैं कि इस तरह कटिंग हो और पहाड़ों से छेड़छाड़ की जाए। विद्युत परियोजनाओं पर इसलिए भी करना जरूरी है क्योंकि किन्नौर कुल्लू से लेकर भी नज़र रखना जरूरी है क्योंकि ब्यास, सतलुज, पार्वती और अन्य नदियों के उद्गम स्रोत हैं वहां पर भी विद्युत परियोजनाओं ने अपना हक जमा लिया है।
अब सैलाब से मिले जख्मों से सबको अपनी अपनी चिंता है लेकिन पहाड़ की चिंता कौन करेगा ये सबसे बड़ा सवाल है। विकास जरूरी है लेकिन प्रकृति के साथ तालमेल कर किया जाए तब।