ब्यूरो: स्थायी डीजीपी क्यों नियुक्त नहीं कर रहे, क्यों इस संबंध में शीर्ष अदालत के दिशा निर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा है। राज्यों से ये कड़े सवाल पूछे हैं सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी पूछा है कि क्यों नियम और कानूनों को दरकिनार करते हुए कार्यवाहक डीजीपी की तैनाती की जा रही है जबकि कई सीनियर आईपीएस अफसरों की अनदेखी की जा रही है। इस अहम मसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सावित्री पांडेय की याचिका पर सुनवाई करते हुए यूपी सहित सात राज्यों को नोटिस जारी करके छह हफ्तों में जवाब तलब किया है। यूपी के अलावा उत्तराखंड, आँध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, झारखंड को भी जवाब देना है।
पुलिस सुधार की दिशा में कई प्रयास, प्रकाश सिंह केस सबसे अहम रहा
दरअसल, हमारे देश में पुलिस तंत्र में आमूलचूल बदलाव को लेकर तमाम कवायदें की गईं। इस दिशा में किए गए प्रयासों की लंबी श्रृंखला है, विधि आयोग, मलिमथ कमेटी, पद्मनाभैया कमेटी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अहम कड़ी के तौर पर हैं। इसी दिशा में 14 मई, 1977 को केंद्र सरकार ने आईएएस अफसर धर्मवीर की अध्यक्षता में राष्ट्रीय पुलिस आयोग गठित किया। जिसने फरवरी 1979 और 1981 के बीच कुल आठ रिपोर्ट दी। पर इस आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं किया जा सका। इससे उद्वेलित होकर यूपी के पूर्व डीजीपी रहे आईपीएस अफसर प्रकाश सिंह ने साल 1996 में एक रिट याचिका (सिविल) 310/1996, सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की। इसकी सुनवाई करते हुए साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दबाव से पुलिस प्रशासन को मुक्त करने की दिशा में ऐतिहासिक फैसला दिया। इस संबंध में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश पुलिस सुधार की दिशा में बेहद महत्वपूर्ण कदम माने जाते हैं।
यूपीएससी को भेजे गए पैनल के जरिए पुलिस मुखिया तय करने का फरमान था
सुप्रीम कोर्ट का सबसे पहला और अहम निर्देश डीजीपी की नियुक्ति को लेकर था। यूपीएससी को भेजे गए तीन वरिष्ठतम आईपीएस अफसरों के पैनल से ही एक डीजीपी बनाए जाने की बात कही गई। अपनी नौकरी के आखिरी वक्त बिता रहे किसी पसंदीदा आईपीएस अफसर को एक्सटेंशन देकर डीजीपी बनाने के ट्रेंड पर रोक लगाना इसका मकसद था। राजनीतिक दखल और दबाव कम से कम करने के लिए पुलिस मुखिया का कार्यकाल फिक्स्ड करने की बात कही गई थी जिससे कोई राजनेता बीच कार्यकाल में ही अफसर का तबादला न करा सके। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फिर सभी राज्यों को निर्देश दिया कि किसी भी पुलिस अफसर को कार्यवाहक पुलिस महानिदेशक नियुक्त न करें। इस पद के दावेदारों के नाम संघ लोक सेवा आयोग के पास विचार के लिए अवश्य भेजा जाए।
राज्यों ने चहेते अफसरों की नियुक्ति के लिए शीर्ष अदालत के निर्देशों की उड़ाई धज्जियां
सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेशों की अवहेलना करते हुए फरवरी, 2022 में आंध्र प्रदेश में राजेंद्र रेड्डी को कार्यवाहक डीजीपी बना दिया गया। इसके बाद तो अदालती निर्देशों की नाफरमानी का रोग अन्य राज्यों में भी फैल गया। अभिनव कुमार को उत्तराखंड में कार्यवाहक डीजीपी बना दिया गया। यूपी में भी 12 मई, 2022 को डा देवेन्द्र सिंह चौहान को बतौर कार्यवाहक डीजीपी नियुक्त किया गया था। चौहान के बाद डॉ आर के विश्वकर्मा और फिर विजय कुमार भी कार्यवाहक डीजीपी बनाए गए। 1 फरवरी, 2024 को यूपी के मौजूदा डीजीपी प्रशांत कुमार ने भी बतौर कार्यवाहक डीजीपी के तौर पर पदभार ग्रहण किया।
पूर्व आईपीएस अफसर कार्यवाहक डीजीपी के चलन को उचित नहीं मानते हैं
पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह मानते हैं कि राज्य सरकारें अपने चहेते अफसर को पुलिस मुखिया की कुर्सी पर बिठाने के लिए ही यूपीएससी को पैनल भेजने के विकल्प से बच निकलती हैं। पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह के मुताबिक कार्यवाहक डीजीपी की तैनाती की सुप्रीम कोर्ट ने साफ मनाही की है। पर ज्यादातर राज्य निष्पक्ष डीजीपी नहीं बनाना चाहते हैं, इसलिए चहेतों को पुलिस मुखिया की कुर्सी पर काबिज कराने के लिए कार्यवाहक डीजीपी की तैनाती कर देते हैं। वे कहते हैं कि कार्यवाहक को फोर्स उतनी गंभीरता से नहीं लेती और उसे लीडर नहीं मानती है।
तमाम समितियों और आयोगों की अहम सिफारिशें फाइलों में जकड़ कर रह गईं
साल 2006 के पुलिस सुधार आदेश पर अमल की समीक्षा के लिए 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस केटी थॉमस की अगुआई में 3 सदस्यों वाली कमेटी गठित की थी। पुलिस सुधारों के अमल की समीक्षा के दौरान जस्टिस केटी थॉमस हैरान थे कि राज्य किन तरीकों से सर्वोच्च अदालत के निर्देशों को धता बताने के लिए पैंतरेबाजी कर रहे हैं। इस कमेटी की सिफारिशें फाइलों में कैद हैं। गौरतलब है कि मॉडल पुलिस एक्ट 2006 को सोली सोराबजी सहित कई सीनियर नौकरशाहों-पुलिस अफसरों व सिविल सोसाइटी के लोगों ने मिलकर तैयार किया था। इसके अलावा जूलियो रिबेरियो, के पद्मनाभैया और वीएस मलिमथ की पुलिस सुधार संबंधी रिपोर्ट्स में भी बेहतरीन सुझाव दिए गए थे पर दशकों से ये सभी सिफारिशें ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं।
यूपी में योगीराज के सात वर्षों में आठ डीजीपी नियुक्त हुए
यूपी में योगी सरकार की ताजपोशी के बाद 24 अप्रैल, 2017 को सुलखान सिंह डीजीपी बने थे फिर ओपी सिंह और हितेश चंद्र अवस्थी ने ये जिम्मा संभाला था. 2 जुलाई 2011 को मुकुल गोयल को पुलिस महकमे की कमान सौंपी गई थी लेकिन कुछ गंभीर आरोपों के चलते उन्हें 11 मई, 2022 को पद से हटा दिया गया था। इसके बाद 12 मई, 2022 को डा देवेन्द्र सिंह चौहान को बतौर कार्यवाहक डीजीपी नियुक्त किया गया था। चौहान के बाद डॉ आर के विश्वकर्मा और फिर विजय कुमार कार्यवाहक डीजीपी बनाए गए। 1 फरवरी, 2024 को प्रशांत कुमार ने कार्यवाहक डीजीपी के तौर पर पदभार ग्रहण किया। बीते 17 वर्षों में डीजीपी के पद पर सर्वाधिक लंबा कार्यकाल विक्रम सिंह का रहा जो मायावती के शासन के दौरान 27 महीनों तक इस पद पर काबिज रहे, ओपी सिंह दो वर्षों तक डीजीपी रहे। बाकी सबका कार्यकाल बेहद कम रहा। अरुण कुमार तो महज एक माह ही डीजीपी रह सके।
जाहिर है ज्यादातर राजनेता पुलिस सुधार लागू करके पुलिसिया तंत्र को निष्पक्ष व दबावरहित बनाना नहीं चाहते, लिहाजा न इस दिशा में न तो सरकारों की कोई नीति दिखती है न नियति।